Wednesday, December 31, 2008

नए साल पर लें तीन संकल्प

अभी रात के 9 बजे हैं. सिर्फ़ तीन घंटे बाद ही नया साल आ जाएगा। सभी जगह नए साल के आगमन की खुशी में धमा चौकडी मची है। कहीं डीजे है तो कहीं मेले लगे हैं। जश्न के इस क्षण में हम भी शामिल हैं। लेकिन मेरी यह गुजारिश है की समय के साथ हमें भी चलना चाहिए। हमें आने वाले तीन घंटे में ही नए साल के लिए कम से कम तीन संकल्प भी लेने चाहिए। भारतीयता, भाईचारे और ईमानदारी की।
भारतीयता इसलिए की हमें फ़िर 2009 में कोई मराठी और बिहारी के तौर पर अलग न करे। जब तक हम भारतीयता की सम्पूर्णता को नहीं समझेंगे तब तक हम आपस में ही उलझे रहेंगे। मुंबई पर हमले के बाद हर बिहारी, बंगाली और यूपी वालों का भी दिमाग उतना ही गरम हुआ था जितना किसी मराठी का। इसलिए नए साल के जश्न के साथ ही हमें भारतीय और सिर्फ़ भारतीय होने का भी संकल्प लेना पड़ेगा।
दूसरा भाईचारे का। धर्म के नाम पर एक-दुसरे को पिछले कई सालों से हमने लड़ते हुए देखा है। मन्दिर, मस्जिद तो कभी गिरिजाघर के नाम पर आग लगाये जाते रहे हैं। 2008 में भी ऐसे काले दिन हमने देखे हैं। अब लगातार आगे बढती दुनिया में हमें शिक्षा और बेहतर जीवन के बारे में सोचना चाहिए। यह भाईचारे से ही संभव है।
तीसरा संकल्प ईमानदारी का। हमें अपने आप से इमानदार होने की शपथ लेनी होगी। अपने आप से बहाना करने की आदत छोड़नी पड़ेगी। यह तभी संभव होगा जब हम इमानदार होंगे। अपने काम के प्रति, अपने देश के प्रति और अपनी जिम्मेदारियों के प्रति...तो आइये हम सभी आज नए साल के आते-आते ये तीन संकल्प ले लें।

जय हिन्द
प्रगति मेहता।

Tuesday, December 9, 2008

कंधार के बाद ही भारत को हमला करना चाहिए था

मुंबई हादसे के बाद से ही भारत सरकार ने सख्त रवैया अपनाया और पाकिस्तान को वांछित आतंकियों की एक सूची सौंप दी। विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने तो सैन्य कार्रवाई से भी परहेज न करने की बात कहकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर माहौल गर्मा दिया था। निश्चित तौर पर अब भारत जैसे सहनशील देश के सामने इसके सिवाय कोई चारा नहीं बचा था। लेकिन मेरा मानना है कि भारत को तो उसी समय पाकिस्तानी आतंकी शिविरों पर हमला कर देना चाहिए था जिस समय हमारे देश से विमान का अपहरण हुआ था।
काठमांडू से नई दिल्ली आ रहे विमान का १९९९ में आतंकियों ने अपहरण कर लिया था। १७० सवारियों की जान-माल का ख्याल करते हुए तत्कालीन सरकार ने मसूद अजहर जैसे आतंकी को रिहा कर दिया था । आतंकियों को छोडऩे के बाद ही विमान सवारों को रिहा किया गया था । निश्चित तौर उस समय सरकार के पास भी कोई विकल्प नहीं था। विमान और हमारे लोग उनके कब्जे में थे। लेकिन क्या भारत इतना असहाय हो गया था कि विमान छुड़ाकर लाने के बाद इतने साल तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। भारत ने आज तक आतंक के खिलाफ लडऩे का कोई मजबूत स्टैंड नहीं उठाया। यही कारण रहा कि कंधार विमान के बदले आतंकियों को रिहा करना भारत को इतना महंगा पड़ रहा है। आंकड़े बताते हैं कि मात्र दो साल में भारत में ५००० से ज्यादा लोग आतंक के शिकार हो गए। यदि तत्कालीन सरकार विमान अपहरण करने वालों और उसे शह देने वाले देश के खिलाफ ऐसी ही सैन्य कार्रवाई की चेतावनी देती तो शायद आज एेसी नौबत नहीं आती। आज हमारा ताज मुंबई ही नहीं देश का भी सरताज रहता। मुंबई को हादसे का गवाह बनने से बचाया जा सकता था। संसद भवन तक के हमले को रोका जा सकता था। भारत को उसी समय यानी विमान छुड़ाकर लाने के अगले ही दिन अपने पड़ोसी देश के आतंकी शिविरों पर हमला कर देना चाहिए था। इस कदम के बाद यदि दोनों मुल्कों में जंग होती भी तो भारतीयों को गर्व ही होता। दब्बूपन और घुट-घुटकर मरने से तो अच्छा होता कि एक बार आर-पार की लड़ाई ही हो जाती। दिक्कत यही है कि हम अमेरिका की चालबाजी में फंस जाते हैं। हमारे घर में घुसकर नंगा नाच करने वालों को पर जब हम कड़ी कार्रवाई करने की बात करते हैं तो अमेरिका हमें रोकता है। विदेश मंत्री कोडोलिजा राइस का दौरा भी हमने देखा। वह सिर्फ भारत ही नहीं आईं बल्कि पाकिस्तान पहुंचकर वहां भी अपनी निकटता दिखाई। लेकिन क्या अमेरिका भी एेसा करता है। क्या वह पाकिस्तान के कबायली हिस्सों में घुसकर कार्रवाई नहीं करता है। पाकिस्तान के आतंकी शिविरों से हजारों किलोमीटर दूर स्थित अमेरिका को इतना खतरा हो सकता है तो नजदीकी देश भारत को क्यो नहीं। मेरा मानना है कि भारत को पाकिस्तान से कड़े शब्दों में दो टूक पूछना चाहिए। खुफिया सबूत भी बताती है कि मसूद अजहर आज भी पाकिस्तान में है और वहीं से भारत के खिलाफ आग उगल रहा है।
चांद से लेकर जमीं तक और शिक्षा से लेकर विज्ञान तक में भारत ने एक नई ऊंचाई तय की है। अब हमारी पहचान भी दुनिया के सामने एक शक्तिसंपन्न राष्ट्र के रूप में है। एेसे में अब भारत सरकार को चुपचाप बैठकर पाकिस्तान की कार्रवाई का इंतजार किए बगैर तुरंत सख्त कदम उठाना चाहिए। पाकिस्तान के आतंकी शिविरों पर हवाई हमला करके उसे बर्बाद कर देना चाहिए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को वह गलती नहीं करनी चाहिए जो हमारे देश के नेताओं ने कंधार अपहरण के समय किया था।
जय हिन्द , जय भारत।

Monday, December 1, 2008

यह हल रहा तो ऐसे कितने दरवाज़े बंद हो जायेंगे

भारत अब इन आतंकी वारदातों से नहीं दहलता। इतना विशाल और शक्तिशाली देश भला डर भी नहीं सकता। आतंकी वारदातें भी यहाँ के लिए नई बात नही रह गई। लेकिन केरल की एक घटना ने जरुर पूरे देश को झकझोर दिया। मौत पर राजनीति करने की जो शर्मनाक परम्परा शुरू हुई है यह उसी का रिजल्ट है। मेज़र संदीप के पिता ने जिस तरह केरला के सीएम को खदेडा उसकी ज्यादातर लोगों ने तारीफ ही की। कहीं कोई हादसा हो नेता तो अब सिर्फ़ और सिर्फ़ मुआवजा की ही भाषा बोलने लगे हैं। ट्रेन दुर्घटना हो या किसी की शहादत इन्हे सिर्फ़ यही जुबान बोलने आती है। पक्ष और विपक्ष दोनों पार्टियाँ वही करती हैं। कोई सरकारी धन देता है तो कोई पार्टी फंड से मुआवजा की घोषणा करता है। पिछले ही दिनों बाटला हाउस एनकाउंटर के बाद एक पार्टी के बडबोलू नेता ने भी कुछ ऐसा ही क्या। इधर शहीद मोहन चंद्र शर्मा के घर पर चेक भेजा और उधर एनकाउंटर पर ही सवाल उठाने लगे। आख़िर यह दोहरा चेहरा कब तक दिखाते रहेंगे आप। शहीद शर्मा के परिज़नों ने भी चेक लौटा दिया और उधर उन्नीकृष्णन के पिता ने सीएम को ही लौटा दिया।
एक कहावत है अति सभी जगह बर्जित है। निश्चित तौर पर यह कहावत पॉलिटिक्स में भी लागु होता है। आप नहीं रुकेंगे तो जनता आपको रोक देगी। आख़िर वही भाग्य विधाता है। समझदारी इसी में है की आप दाता की भूमिका छोड़ याचक का रुख अपनाइए। नहीं तो ऐसे कितने दरवाज़े आपके लिए बंद हो जायेंगे।

धन्यवाद। जय हिंद, जय भारत।

Wednesday, October 29, 2008

मुंबई को उतारना होगा अपने चेहरे से घटिया नकाब

मुंबई की घटना लगातार बढती ही जा रही है. अब तक कई लोग पीट-पीट कर खदेड़े जा चुकें हैं। कई भीड़ में मारे भी गए हैं। एक आक्रोशित और उर्जावान नौजवान की आवाज़ को भी आप-हम सभी ने इसी मुंबई में दफ़न होते देखा। लेकिन लगता है अब ऐसी आवाज दबने वाली नहीं है. मुंबई को अपने चेहरे से उस घटिया नकाब को तुंरत उतारना ही होगा जो उसे बदरंग बना रहा है। बहुत हुआ. अब मुंबई को अपने खून-पसीने से सींचने वालों को जागना होगा। उन्हें यह सोचना होगा की मुंबईवासी होने से पहले वह भी एक हिन्दुस्तानी हैं. उनका देश भी भारत ही है. उन्हें भी बाबा साहब आंबेडकर के बनाये कानून को ही मानना चाहिए ना की राज ठाकरे की संकुचित मानसिकता को। मुंबई को हिंदुस्तान की आर्थिक राजधानी माना जाता है। मुंबई को यह सम्मान किसी राज ठाकरे टाइप आदमी से नहीं मिला है। और ना ही अपने को मुंबई का दादा समझने वाले उनके चाचा जी से । मुंबई को यह सम्मान तो हम हर हिन्दुस्तानियों ने दिया है चाहे वह यूपी, बिहार के हों या केरला के। मुंबई तो सिर्फ़ मुंबई की है, वह किसी एक की जागीर नहीं। नफरत फैलाकर अपनी रोटी सेंकने वाले का मुँहतोड़ जवाब मुंबई के लोगों को ही देना होगा। आखिर कब तक एक परिवार मुंबई को अपनी डुगडुगी पे नचाता रहेगा। बाहर निकलकर अपना रास्ता ख़ुद बनाइये....जय हिंद, जय भारत।

Sunday, October 19, 2008

राजनीति कीजिये, लेकिन विकाश के लिए

देर से ही सही लेकिन मायावती ने अपना फ़ैसला बदलकर एक अच्छी पहल की है। राजनीति तो होनी ही चाहिए। लेकिन स्वस्थ और पोसिटिव। रेल कोच फैक्ट्री कहीं बने लेकिन तरक्की तो उत्तरप्रदेश की ही होगी। यदि स्टेट में यह फैक्ट्री नहीं लग पाती तो इसका कहीं न कहीं नुकसान मायावती जी को भी उठाना पड़ता। अब नैनो प्लांट को ही लीजिये। ममता बनर्जी के अड़ियल रुख के चलते टाटा को बंगाल से पीछे हटना पड़ा। यह बंगाल सरकार की नाकामी तो है ही ममता बनर्जी की भी हार है। निश्चित तौर पर जमीन देने वाले किसानों को उचित मुआवजा मिलना चाहिए था। ममता जी इस मुद्दे पर कोई समझौता नहीं करतीं लेकिन एकदम से रास्ता ही रोक देना ग़लत है। ऐसे कदमों का आम जनता को भी विरोध करना चाहिए।
दरअसल, कुछ राजनेता वोट की ग़लत राजनीति कर जनता को गुमराह करने लगे हैं। कहीं जमीन के नाम पर तो कहीं बाटला हाउस एनकाउंटर के नाम पर। नैनो के मुद्दे पर बंगाल को एक झटका देने के बाद अब ममता जी यहाँ पहुंचीं हैं। नैनो मामले में उनका साथ देने सपा नेता अमर सिंह बंगाल गए थे। अब सपा नेता बाटला पहुंचे हैं तो ममता जी का आना फ़र्ज़ बनता है। खैर बाटला हाउस का मामला जांच से जुडा है। इन नेताओं को घटिया राजनीति करने के बजाय निष्पक्ष समिति से इसकी जांच की मांग करनी चाहिए। आख़िर उन्हें भी समझना होगा की जब देश रहेगा तभी राजनीति भी चलेगी। इसीलिए देश के मुद्दे पर कोई कदम उठाने से पहले नेताओं को अपनी जिम्मेवारी समझनी चाहिए....राजनीति हमेशा विकाश के लिए कीजिये, विनाश के लिए नहीं.

Saturday, September 13, 2008

हिम्मत को नहीं हिला सकते ये धमाके

बहुत हुआ। जयपुर और अहमदाबाद के बाद बद्मिजाजों ने अब दिल्ली को निशाना बनाया है। ऐसी घटनाओं के बाद तमाम लोग पुलिस और खुफिया तंत्र की बखिया उधेड़ने में लग जाते हैं। राजनेता भी एक-दुसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने लगते हैं। और फ़िर पुलिस कुछ लोगों को हिरासत में ले लेती है। और जाँच का लंबा सिलसिला शुरू हो जाता है।
दोस्तों, अब हमें भी अपना कर्तव्य और फर्ज निभाना होगा। इस बार बद्मिजाजों ने देश की राजधानी पर हमला किया है। यह पूरे देश और हिन्दुस्तानियों पर हमला है। हमें चुपचाप बैठने के बजाय अपने बीच छुपे ऐसे बदमिजाज लोगों की पहचान करनी होगी। हमें यह सोचना होगा की हमारी करोड़ों की आबादी पर ये चंद लोग कैसे भारी पड़ सकते हैं। ऐसे लोग कहीं न कहीं हमारे बीच ही पनाह लेते होंगे। ये किराये का मकान लेते होंगे। रोड पर लावारिश सामान छोड़ते होंगे।। ऐसे में हम सभी को सतर्क होना होगा। ऐसे लोगों पर निगाह रखना पुलिस का काम है यह सोचकर चुपचाप बैठना ठीक नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए की सच्चे दिल का हमारा एक छोटा बच्चा भी उन आतंकियों को धुल चटाने के लिए काफी हैं। लेकिन दुःख यह है की ये आतंकवादी नामर्द होते हैं और छुपकर वार करते हैं। ऐसे में हम सभी को सड़क पर चलते समय बेहद सतर्क होने की जरुरत है। बस और ट्रेन में भी हमें अपने आसपास ध्यान रखने की जरुरत है। खासकर लावारिश सामान को लेकर तुंरत चौकस होने की जरुरत है। धर्म और मजहब से ऊपर उठकर मानवता के बारे में सोचना होगा.
ये नापाक इरादों के साथ चाहे जितने भी धमाके कर लें लेकिन इससे हिंदुस्तान झुकने वाला नहीं है। हमारा माथा हमेशा ऊँचा रहा है और रहेगा।

Wednesday, September 10, 2008

बंद कीजिये टीआरपी का ये अँधा खेल

बुधवार सुबह मैं घुमने के लिए अपार्टमेन्ट से बहार निकल रहा था। रोज की तरह कुछ बच्चे स्कूल जाने को बस का वेट कर रहे थे। लेकिन आज देखा की कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो आज स्कूल नहीं जाना चाह रहे हैं । उनका कहना था की आज प्रलय आने वाला है। मैं आपलोगों के साथ घर में ही रहना चाहता हूँ, लेकिन उसके पापा ने उसे जबरन बस में बिठा दिया। बस रवाना होने पर उसके पिता मुखातिब हुए और कहने लगे। अरे बॉस क्या कहूँ। कई दिनों से टीवी में १० सितम्बर को दुनिया ख़तम होने की आशंका जताई जा रही थी। बच्चे टीवी देखते रहते हैं। ऐसे में आज बहुत ज्यादा डरे हुए थे। स्कूल ही नहीं जाना चाह रहे थे। मैं इन बातों को सोचता हुआ अभी आगे बढ ही रहा था की सिस्टर का फोन आ गया। उनकी भी यही प्रॉब्लम थी। कहने लगीं की ये मीडिया वाले क्या-क्या दिखाते रहते हैं। आज तुम्हारा भांजा स्कूल जाने को तैयार ही नहीं हो रहा था।
दिनभर जहाँ जहाँ मैं गया वहां यही बात हो रही थी। सभी जगह सिर्फ़ और सिर्फ़ दुनिया ख़तम होने की ही बात चलती रही । शाम में एक सज्जन मिले कहने लगे भाई साहब आप क्या मानते हैं- बताइए ऐसी खबरें दिखाने से उन्हें रोकना चाहिए या नहीं। सचमुच कुछ चैनलों ने अब ख़बरों के साथ टीआरपी का अँधा खेल ही शुरू कर दिया है। इस खेल ने पत्रकारिता के धर्मों को पीछे धकेल दिया है। समाज को सही जानकारी देने के बजाय शुद्ध रूप से घटिया जानकारी परोसी जा रही है। लोगों को डराया जा रहा है। कभी भुत पिशाच तो कभी यमराज की सवारी दिखाते-दिखाते अब इन्हे विकाश और विनाश में भी फर्क नहीं समझ में आ रहा है। तभी तो जेनेवा से जुड़ी इस विकाश की ख़बर को इस तरह विनाश से जोड़कर रखा गया की लोग दहशत में आ गए। हमारे कल के भविष्य ये बच्चे तक डर गए हैं। क्या यही हमारा फर्ज है। मीडिया को ऐसे मुद्दे पर गंभीरता से सोचना होगा। यदि यही नजरिया रहा तो लोग मीडिया की सभी ख़बरों को बकवास समझने लगेंगे।
निश्चित तौर पर चैनल सबसे पहले ख़बर पहुंचता है। उसकी पहुँच ज्यादा से ज्यादा लोगों तक है। ऐसे में चैनल पर दिखाया जाने वाला एक-एक शब्द मायने रखता है। इस पहुँच और व्यापक दायरे का यदि सकारात्मक प्रयोग हो तो जागरूकता बढेगी। एकाध चैनल इस धर्म को निभाने की भरपूर कोशिश भी कर रहे हैं। लेकिन दुखद यह है की उनसे कहीं ज्यादा उस धर्म को भूलते जा रहे हैं।

Tuesday, September 2, 2008

सुनील गौतम को आपकी मदद चाहिए


साथियों वक्त बहुत कम है। हम सबों के बड़े भाई जैसे वरिष्ठ पत्रकार सुनील कुमार गौतम बेहद दर्दनाक और तंगहाली की इस्थिति से गुजर रहे हैं। चार साल से वह अपनी बीमारी से लड़ रहे हैं। लेकिन अब उनके पास इलाज़ कराने तक का पैसा नहीं है। उनकी जिंदगी बचाने के लिए हर हाल में उन्हें छः सितम्बर तक एक लाख रूपये की जरुरत है। दोस्तों, ऐसी दुःख की घड़ी में तो अंजान आदमी भी किसी की मदद करता है। लेकिन सुनील जी तो हमारे बीच के हैं। उनके साथ रहकर हम सबों ने काम करना सिखा है। ऐसी दुनिया में जहाँ पैसे का कोई मोल नहीं है। न ही पैसे के आने और जाने की कोई सीमा है। जरुर मदद करनी चाहिए. दूसरी बात यह की संकट किसी के साथ भी हो सकता है। ऊपर वाले की मेहरबानी से हम सभी कमाते हैं। कोई ज्यादा तो कोई उससे कुछ कम। ऐसे में अपने बीच से कोई आदमी पैसे के बिना जिंदगी की ज़ंग हर जाए यही कतई शोभा नहीं देगा। भड़ास पर ऐसी सुचना और सुनील जी की फोटो देखकर मैं कांप गया। तुंरत विनय और राजिव्किशोर को फोन किया। सभी ने फ़ौरन कुछ कदम उठाने की बात कही। प्रेम भाई से रात में ही मैंने बात की। उन्होंने अपना अकाउंट नम्बर दिया है. हम सभी साथी यदि यथासंभव पैसे उस अकाउंट में जल्द से जल्द डाल दें तो उनकी बड़ी मदद ही नहीं हो जायेगी बल्कि एक दिया, पुरा परिवार बिखरने से बच जाएगा.....साथियों मैं निचे अकाउंट का डिटेल लिख रहा हूँ फ़ौरन जो भी बन पड़े जरुर मदद कीजियेगा....आप मदद करेंगे तो ऊपर वाला आपकी भी मदद करेगा॥
प्रेम अपने पटना के साथियों के साथ पैसे दें आएगा. यही इस ब्लॉग की भी कामयाबी होगी. धन्यवाद ।
Pragati Mehta.


Account details:-

PREM KUMAR
State Bank Of India
CHAUHATTA Branch
Patna.
Ac No-010118251890

Friday, August 29, 2008

भोज घड़ी कोहडा .....

सचमुच यह वही कहावत है ' भोज घड़ी कोहडा रोपने वाली '। यानि जब पार्टी में सभी खाने आ जायें तो फ़िर खेत में सब्जी उपजाने की बात हो । इन दिनों बिहार के बाढ़ में कुछ ऐसा ही दिख रहा है। कोसी की विकराल भयावह धारा सभी को लीलने को बेताब है। कई लोग डूबकर मर चुके हैं। लाखों लोग अब भी जान बचाने की जद्दोजहद कर रहे हैं। अभी जरुरत है बगैर एक पल भी गवाएं तुंरत ज्यादा से ज्यादा लोगों को मौत के मुंह से निकलने की। लेकिन दुखद यह की ऐसे समय में भी नेता टाइप लोग एक दुसरे पर आरोप लगाने में व्यस्त हैं। कोशी हाई डैम परिय्जना की बात की जाने लगी है. कुछ कह रहे हैं की हाई डैम नेपाल से जुडा मामला है जिसमे राज्य सरकार कुछ नहीं कर सकती है। यानि जब बाढ़ आई तो इन्हे कोशी हाई डैम सूझने लगा। इतने सालों तक किसी ने उधर देखना भी मुनासिब नहीं समझा था। जब कोशी अपने रस्ते बह रही थी। जब आपके हाथ मौका था तो आपने बैराज को दुरुस्त करने की कोई पहल नहीं की। अभी जब जरुरत लोगों को निकलने की है तो आपको बैराज बनाने की यद् आ रही है..मेरे नेताओं प्लीज़ अभी अपना सारा ध्यान मौत के मुंह में फंसे हमारे बच्चों और अन्य लोगों को निकलने में लगाइए। एक-दुसरे पर आरोप लगाने में समय जाया मत कीजिये... राहत कार्य चलाना सरकार की जिम्मेवारी है लेकिन हम सभी इसमे सहयोग कर सकते हैं. आसपास जिले के लोग भी रहत कार्य बाँट रहे हैं कृपया आप भी साथ दीजिये।
धन्यवाद।

Wednesday, August 27, 2008

भगवान के लिए अभी पॉलिटिक्स मत कीजिये

' बिहार का शोक ' कोसी फिर अपने प्रलयंकारी रूप में सामने है। सैकडों गाँव और लाखों लोग भयावह बाढ़ में फंसे हैं। दहाड़ मारती कोसी की धारा में फंसे लोगों का एक-एक पल बेशकीमती है। थोडी लापरवाही या देरी उनके जान का दुश्मन बन सकता है. भूखे-प्यासे उन लोगों की हर एक नज़र सरकार की ओर उम्मीद लगाये बैठी है। किसी का बेटा तो किसी ने अपना सुहाग खो दिया है। आँख के सामने बच्चे भूख और प्यास से तड़प रहे हैं। न खाने को एक दाना है और न पीने को साफ पानी। राज्य सरकार केन्द्र पर तो केन्द्र से ताल्लुक रखने वाले नेता राज्य सरकार पर आरोप लगा रही है। मैं अपने राज्य के नेताओं से यही गुजारिश करता हूँ की भगवान के लिए इस समय पॉलिटिक्स छोड़ कर उनके लिए कुछ कीजिये। यह समय पॉलिटिक्स करने का नहीं है. देश और दुनिया के लोग उस बाढ़ की एक फोटोग्राफ देखकर सिहर उठते हैं। भयावह तस्वीर आंखों के सामने होती है। ऐसे में सोचिये उन बेचारों की क्या हालत होगो जो मौत से जद्दोजहद कर रहे हैं. ऐसे समय में किसी जाँच आयोग और लम्बी चौडी घोषणाओं की भी जरुरत नहीं है। अभी तो सभी का प्रयास होना चाहिए की फंसे हुए लोगों को सही-सलामत कैसे निकाला जाए।
मैं खासकर बिहार के चीफ मिनिस्टर नीतिश कुमार और रेल मंत्री लालूं प्रसाद से यह गुजारिश करता हूँ की इस दुःख की घड़ी में प्रदेश की जनता के लिए मिलजुल कर कोई ठोस कदम उठाइए। साथ ही ऊपर वाले से यह कामना करता हूँ की बाढ़ में फंसे लोगों को जल्द से जल्द मदद मिले और उनकी जिंदगी भी पटरी पर लौटे।

धन्यवाद।

Saturday, August 23, 2008

बाढ़ के वो खौफनाक मंजर...

यमुना की बाढ़ ने मुझे उत्तर बिहार की बाढ़ की याद दिला दी। वो दर्दनाक और खौफनाक मंजर मेरे आंखों के सामने आज फ़िर घुमने लगा। गाँव-गाँव को लीलने को आमादा बागमती नदी । मरने वालों की हर दिन लम्बी होती सूची । भूख से बिलखते बच्चे और साफ पानी के लिए तरसता गला। इधर हर घंटे नदी में बढ़ता पानी तो उधर हर घड़ी बढती चिन्ता। शहर से हर छन टूटता संपर्क तो इधर बीमारी से कराहता जीवन। पिछले कई सालों की तरह २००६ में भी मैं बाढ़ की रिपोर्टिंग करने सीतामढी की तरफ़ गया। सुबह के दस बजे थे। मैं और संजय गुप्ता, फोटोग्राफर, मुजफ्फरपुर से बाइक से सीतामढी जाने वाली एनएच ७७ पर निकले। कुछ किलोमीटर के बाद से ही पानी से संघर्ष शुरू हो गया। अलकतरा, पानी और कभी जबरदस्त कीचड़ से होते हुए हम किसी तरह कटौझा तक पहुंचे। आगे एनएच ७७ पर चार फुट से ज्यादा नदी की धार बह रही थी। दोनों ओर गाड़ियों की लम्बी कतार लगी थी। वहीँ सड़क किनारे बाइक छोड़ दी। जूते वही उतारकर जींस को फोल्ड करना पड़ा। फ़िर हम लोग ट्रैक्टर में सवार हुए। एक किलोमीटर तक की ट्रैक्टर यात्रा ने रुला दिया। उसके बाद फ़िर नाव पर सवार हुए। पेड़ पौधों से टकराता हुआ नाव आगे चला। नदी की बहाव देखकर साँस अटक जा रही थी। करीब २० मिनट के बाद नाविक ने एक गाँव के किनारे लाया। कदम निचे रखते ही पैर जमीं में धँसने लगा। फ़िर हम दोनों एक दुसरे को थामते हुए किसी तरह आगे बढे। सामने से एक दूसरा नाव आता दिखा जिसमे सवार महिलाएं कहीं दूर से पीने का पानी लेकर आ रही थीं। तब तक गाँव के कई लोग इकठा हो गए। कौन हैं और कहाँ से आए हैं, यह जानते ही लोग आपबीती सुनाने लगे। किसी का पुरा घर बह गया तो किसी का पुरा अनाज ही बर्बाद हो गया। किसी का बेटा पानी में डूबकर मर गया। घरों में चार-चार फुट पानी है। अब तक कोई सरकारी राहत नहीं मिली है। नाव और राहत सामग्री की बात तो छोडिये कोई अधिकारी अभी तक देखने भी नहीं आया है। बगैर दवा और इलाज के लोग मर रहे हैं। सांप काटने की घटना बढ़ गई है। सीरियस बीमार लोगों की जान गाँव के उसी निम्-हकीम पर छोड़ दी जाती है जिसे पकड़ने के लिए सरकार हमेशा अभियान चलाती रहती है। जलस्तर और बढ़ते ही लोग गाँव छोड़ वहीँ सड़क या बाँध पर आ जाते हैं। फ़िर नदी की विकराल धारा को ही देखते देखते कई दिन गुजर जाते हैं।
बाढ़ की त्रासदी : भाग एक

Sunday, August 10, 2008

सचमुच कमाल के हैं आप

सचमुच कमाल हैं आप। दौड़ती-भागती टीवी की लाइफ में भी बिल्कुल अलग । बोलने का ख़ुद का तरीका। सलीके के शब्द और कायदे का आलेख। चेहरे पर गंभीरता और आवाज़ में दम । और वही सटीक तिपन्नियाँ। नवाबों के शहर को तो आप पर नाज़ है ही, सभी हिन्दुस्तानियों को भी आप पर फक्र है। टीवी की पत्रकारिता में जहाँ लोग ज्यादा समय हंसगुल्ले पर दे रहे है। हंसने-हँसाने का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा है। वहीँ आप की ज्यादातर गंभीर रिपोर्ट आज भी जमीं से ही जुड़े होते हैं। चाहे आतंकवाद के खिलाफ आपकी रिपोर्टिंग हो या फिर राजनेता अजित सिंह के पाला बदलने की आपके आलेख आज भी दिमाग में हैं। कभी कहीं टीवी के खास रिपोर्टरों की चर्चा हो रही हो तो आप का नाम तेजी से सुनाई देने लगता है। मैं अपने कुछ पत्रकार दोस्तों के बीच आपकी तारीफ अभी सुरु किया ही था की एक दोस्त ने आपकी सालों पुरानी कई आलेख को यूँ ही जुबान पर बोल गए। तब भी मेरी जुबान पर यही आया की सचमुच कमाल के हैं आप।
वो पत्ते बीन रहे एक गरीब बुजुर्ग के बारे में आपका आलेख आज भी मुझे पुरी तरह याद है। वो पीपल के पेड़ के चक्कर काटते बच्चों को दिखाते हुए आपने कहा था की ये एक दुसरे की शर्ट पकड़ कर रेलगाडी बनते हैं. मैं देखता हूँ की इंजन तो हर रोज बदलता है लेकिन गार्ड का अन्तिम डिब्बा हर रोज एक ही लड़का बनता है। क्योंकि उसके पास शर्ट नहीं है। वाह.....क्या गजब की बात कही है। ये अन्तिम पंक्ति ही पुरी बात कह गया। सचमुच ऐसी भावुक रिपोर्टिंग आप जैसा गंभीर शख्सियत ही कर सकता है। पिछले दिनों भी आपको एक अवार्ड मिला था। आज फ़िर आपके नाम बेस्ट रिपोर्टर का अवार्ड आया है। अपने साथियों की तरफ़ से आपको कोटि-कोटि बधाई। साथ ही ऊपर वाले से यह विनती करते हैं की मीडिया जगत को ऐसे कई कमाल खान दे जो हर किसी की आवाज़ बने।
धन्यवाद।

Friday, August 8, 2008

काश एक अपना भी घर होता

देश की राजधानी दिल्ली पर हमसभी को नाज़ है। दिल्ली में अपना एक बंगला हो यह सभी चाहते हैं। लेकिन महंगाई के इस दौर में कुछ ही ऐसे खुशनसीब होते हैं जिनके सपने पुरे होते हैं। निजी बिल्डरों के फ्लैट के दाम सुनकर तो उस बारे में सोचने की भी हिम्मत नहीं हो पाती है . ख़ासकर प्रिंन्ट मीडिया में कम करने वाले ज्यादातर लोगों के साथ तो ऐसा ही है. अब दिल्ली में मकान का किराया भी कम नहीं रहा। ऐसे में दिल्ली विकाश प्राधिकरण की ये आवास योजना हम जैसों के सपनों को पुरा करने में कुछ हद तक सहायक हो सकती है। इसीलिए मैं आपसबों से भी आग्रह करता हूँ की यदि दिल्ली में आशियाने का ख्वाब पाल रखे हैं तो प्राधिकरण की इस योजना को जरुर आजमाइए। देश का कोई भी नागरिक आवेदन कर सकता है। इस योजना के तहत दिल्ली के कुछ हिस्सों में सात लाख से लेकर सत्ततर लाख रूपये तक के फ्लैट हैं. थोडी परेशानी आवेदन के साथ डेढ़ लाख रूपये को लेकर है। लेकिन कुछ बैंक आपकी इस परेशानी को भी दूर करने की सोंच रहे हैं। तो आइये आवेदन करने की हिम्मत करें।
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कहाँ हैं फ्लैट- पीतमपुरा, द्वारका, मोतिआखान, पश्चिम बिहार, दिलशाद गार्डन, नरेला, प्रिरागार्ही, रोहिणी, शालीमार बाग़, वसंत कुञ्ज।
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कैसे-कैसे फ्लैट्स- वन रूम, डबल रूम, तीन रूम फ्लैट।
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आप कर सकते हैं आवेदन
- भारत के नागरिक हैं
- परिवार के एक ही सदस्य करें आवेदन
- आवेदक के नाम पहले से दिल्ली प्राधिकरण का फ्लैट न हो
- आवेदक के पास पैन नंबर हो
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क्या और कबतक
- ६ अगस्त से फॉर्म बिक रहा है जो १६ सितम्बर तक मिलेगा।
- उम्मीद है दिसम्बर तक आवेदन की छंटनी हो जायेगी
- उम्मीद है जनवरी में फ्लैट आवंटन हो जाए
- एस्सी के लिए १७.५ फीसदी, एसटी के लिए ७.५ फीसदी, १ फीसदी शहीद सैनिकों के परिजन और १ फीसदी पूर्व सैनिकों के लिए रिज़र्व है।
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फॉर्म यहाँ मिल रहा है
- 100 रूपये में फार्म मिल रहा है।
- दिल्ली और आसपास के कुछ बैंक जैसे एच्दिएफ्सी, केनेरा और कई बैंक ।
- आप फॉर्म यहाँ से भी डाउनलोड कर सकते है। www.dda.org.in
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कहाँ से आएगी इतनी रकम
आवेदन के समय डेढ़ लाख रूपये जमा करना है। इसे लेकर कुछ लोग परेशान हैं। लेकिन ज्यादा परेशान होने की जरुरत नहीं है। कुछ सरकारी और निजी बैंकों ने इसे फाइनेंस करने की योजना बनाई है। इसके लिए आपको पॉँच हजार या सात हजार रूपये बैंक में जमा करने होंगे। फ़िर बैंक आपकी ओर से डेढ़ लाख रूपये जमा कर देगी। फ्लैट निकल गया तो आपको डेढ़ लाख जमा करने होंगे नहीं तो ये पाँच या सात हजार रुपया आपका डूब जाएगा।
फ्लैट निकलने की इस्थिति में भी आप बैंक से लोन ले सकते हैं।
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ज्यादा जानकारी के लिए यहाँ से संपर्क करें
www.dda.org.in
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धन्यवाद।

Thursday, August 7, 2008

अब दूर नहीं रही दिल्ली

आपने भी किसी को यह कहते सुना होगा की- दिल्ली अभी दूर है. नेता जी भी अपने भाषण में विरोधियों के लिए कहते थे अरे उनके लिए अभी दिल्ली दूर है. यानि असंभव टाइप काम को लेकर पहले लोग यही कहते थे। लोगों के नज़र में दिल्ली बहुत दूर थी। लेकिन तेज भागती जिन्दगी ने दिल्ली को बहुत करीब ला दिया। गाँव के रईश माने जाने वाली फॅमिली का अभिषेक भी दिल्ली आ गया तो घरों में काम करने वाली संन्मुनिया काकी का बेटा भी। मैं भी और आप भी। कोई बड़े दफ्तर में बड़ा साहब है तो कोई दिल्ली की सर्दी और धुप में सड़कों पर जद्दोजहद कर रहा है। कुछ यहाँ खर्चे काटकर अब अपने घर भी पैसे भेजने लगा तो कुच्छ अब भी पिता जी से टेलीफोन पर दरख्वास्त कर रहा है...इस महीने कुछ भेज दीजिये, उम्मीद है अगले महीने से आपको नहीं भेजना पड़ेगा । यानि दूर दिखने वाली दिल्ली ही हमारे सबसे करीब आ गई। बिहार से लोग पहले रोजी-रोटी के लिए कोलकाता की रूख़ करते थे। वहां मेहनत मजदूरी करके कमाते थे। लेकिन अब कोलकाता जाने वालों की संख्या कम हो गई। अब लोग दिल्ली की तरफ़ ज्यादा आ रहे हैं। मेरे मुहल्ले के एक पंडित जी भी मुझे अचानक यहाँ दिखे। उन्होंने कहा अब यहीं आ गया हूँ। एक मन्दिर में पुजारी हूँ। यानि दिल्ली में सभी के लिए कुछ न कुछ है। जो आता है वो कमाता और खाता है। लेकिन मेहनत से. कुछ दिन बाद ही मुझे गाँव का ही विनोद मिला। वह मेट्रो रेलवे में काम कर रहा है। यह पूछने पर की तुम भी दिल्ली आ गए उसने कहा की यहाँ काम की कमी नहीं है। कमी है तो मेहनत की। उसने बताया की उसके साथ कई और लोग भी आ गए हैं। उसने यह भी कहा की सिर्फ़ बिहार से ही नहीं कई दुसरे स्टेट के लोग भी यहाँ काम कर रहे हैं. तब मुझे यही लगा की सचमुच दिल्ली कितनी नजदीक आ गई। कोई समय था जब बिहार से दिल्ली आने के लिए इक्का-दुक्का ट्रेन ही होती थी। तूफान एक्सप्रेस, जनता एक्सप्रेस या जयंती जनता एक्सप्रेस का ही महत्व था। एक-दो दिन पहले भी रिजर्वेशन मिल जाता था। लेकिन अब तो रोजाना दिल्ली की दर्जनों ट्रेन है फ़िर भी रिजर्वेशन नहीं मिल पाता है. अब तो लोग यही कह रहे हैं की दिल्ली कितनी नजदीक है। सचमुच दिल्ली की दरियादिली ने इसे लोगों के बहुत करीब ला दिया। आख़िर लाये भी क्यों न यह देश की राजधानी जो है। देश के हर हिस्से के लोगों को यहाँ से जुड़ने का अधिकार है।

Wednesday, July 30, 2008

राजिव्किशोर की माता जी का निधन

फिर एक दुखद समाचार है। अपने साथी राजिव्किशोर की माता जी श्रीमति निर्मला प्रसाद का मंगलवार देर रत निधन हो गया। वह करीब ६० साल की थीं। कुछ दिन पहले ही उन्हें हार्ट की प्रॉब्लम आई थी। बेहतर इलाज के लिए ही उन्हें दिल्ली लाया गया था। लेकिन अचानक चलते-फिरते उन्होंने सभी का साथ छोड़ दिया। राजीव के द्वारका स्थित फ्लैट में ही उन्होंने अन्तिम साँस ली। वह अपने पीछे अपने पति, दो लड़के, लड़की, बहु, पोता-पोती और नाती-नातिन से भरा पुरा परिवार छोड़ गईं। बुधवार शाम ही एयर रूट से उन्हें पटना ले जाया गया। अन्तिम संस्कार पटना में ही होना तय हुआ है। हम ब्लॉग के सभी साथियों की ओर से उन्हें स्राधांजलि देते हैं. साथ ही दुःख की इस घड़ी में शोकाकुल परिवार के लिए दुआ करते हैं।

Friday, July 25, 2008

भाई, वो डॉक्टर साहब कहाँ चले गए

अरे भाई, वो डॉक्टर साहेब कहाँ हैं आजकल। कौन डॉक्टर ? अरे वही नॉएडा वाले। तुम यार डॉक्टर को भी नहीं जानते हो। लगता है तुम्हे देश के नेशनल मैटर वाले ख़बरों से भी कोई मतलब नहीं होता है। नेशनल मैटर। हाँ यार दिन रात चैनल पर वही समाचार आता था। कोई चैनल खोलो। सिर्फ़ एक ही चीज दिखती थी। कातिल कौन ? कातिल कौन ? टीवी पर ई मामला इतना चला की घर-घर में जाँच होने लगी। सास-बहु भी अपना झगडा भुला इसी खुलासे में लग गई थी। सैलून में बाल काटने वाला भाई भी बीच में कैंची रोककर इसी खुलासे में लग जाता था । अच्छा सर बताइए..... । चैनल वालों ने तो उसके घर के पास कई शिफ्टों में ड्यूटी लगा दी थी। एक-दो नहीं। दस-दस ओबी वैन लगे रहते थे। बेचारे मुहल्ले वालों का जीना मुश्किल हो गया था। कभी नाला खंगालते अधिकारी टीवी पर नज़र आते थे। तो कभी किसी गार्ड से पूछ ताछ होती थी। खुलासा। अरे खुलासे की तो बात मत करो। चैनलों पर रोज रात में इस हत्याकांड के खुलासे का दावा किया जाता था। जब सभी लोग टीवी खोलते तो एंकर बोलतो थी..आप बने रहिये। थोडी ही देर में हम देश की सबसे बड़ी मर्डर मिस्त्री का खुलासा करने वाले हैं। लोग भी टीवी से चिपक कर बैठ जाते थे। टेलर देख कर लगता था की आज कुछ नहीं बचेगा। आज कातिल बेनकाब होकर रहेगा. सभी लोग फ़ैल हो जाएँगे। तभी ब्रेक हो जाता था। फ़िर लगता था की ब्रेक के बाद खुलासा हो जाएगा लेकिन॥ ऐसा नहीं हुआ। डॉक्टर साहब जब जमानत पर छुट कर घर आने लगे तो कई चैनल वाले रास्ते भर कवर करते आये। ट्वेंटी-ट्वेंटी मैच की तरह कुछ ने तो लाइव ही कर दिया था। डॉक्टर साहब घर न जाकर ससुराल आ गए। लेकिन यहाँ भी छुटकारा कहाँ मिलती। उनके पहुँचने से पहले ओबी वैन पहुँच गई थी। फ़िर कई दिनों तक यही चलता रहा की अभी वह अपने ससुराल में ही हैं। उनके प्रति संवेदना के साथ ही जाँच एजेन्सी पर सवाल भी उठाये जाते रहे। दो-चार दिन यही मामला चला। लेकिन इधर परमाणु करार। फ़िर करार पर सरकार। यही सब टीवी पर आने लगा। अब तो डॉक्टर साहब के घर क्या ससुराल पर भी ओवी वैन नहीं है। अब कुछ ओबी वैन पार्लियामेंट तो कुछ बीजेपी और कांग्रेस के दफ्तर पहुँच गई। कुछ लाल झंडे वालों के पास भी लगी है। ऐसे में भला अब किसे फुर्सत है डॉक्टर साहेब की। मामले का चाहे जो भी हस्र हो। अब मीडिया वालों को क्या। दूसरा मसाला जो मिल गया है।

Thursday, July 17, 2008

सुप्रतिम को देखिये, कभी हिम्मत मत हारिये..

सचमुच इसे सुप्रतिम की मौत पर जीत ही कहेंगे। दिल्ली की इस घटना को जिसने भी देखा वो दहल गया, लेकिन उस हिम्मतवाले को दाद दीजिये जिसने उस रड को इतने देर तक बर्दास्त किया। एक रड पहले कार में घुसता है फिर वह उसके पेट के उपरी हिस्से को भेदते हुए पीठ को पार कर जाता है। निश्चित तौर पर यह देखने वालों को भी हिलाने वाला था, लेकिन उसने अपने को पुरी तरह संभाले रखा। जहाँ एक छोटी गोली और एक छोटा चाकू भी आदमी की जान ले लेता है, वहां सुप्रतिम का अब भी सलामत रहना तो यही कहता है.....शाबाश आपके हिम्मत की और शुक्रिया उपरवाले का। साथ ही शुक्रिया उन डॉक्टरों का जिन्होंने भगवान् जैसा काम किया। इसीलिए कहा जाता है की आदमी को मरते दम तक हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। हो सकता है आपको सफलता तब मिले जब आप आखिरी छोर तक पहुँच जायें.....सुप्रतिम से यही सिख लीजिये। कभी हिम्मत मत हारिये..

धन्यवाद.

Friday, July 11, 2008

अरे ये क्या हुआ....

नरेन्द्रनाथ के यह कहते ही की ..कोमल जी नहीं रहे. एक हाथ में तौलिया लिए मैं ठिठक गया। नरेन्द्र उस दर्दनाक घटना के बारे में बता रहे थे और मैं आगे की वो पुरी बदहवास तस्वीर बना रहा था। पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ। ऐसा भला कैसे हो सकता है। लेकिन उन्होंने कहा की अभी प्रदीप से बात हुई है। तुम भी कर लो। तब तक राकेश प्रियदर्शी फ़िर गणेश का फोन आ गया। सभी के जुबान से सिर्फ़ इतना ही निकल रहा था की अरे ये क्या हुआ। मैं सुबह कहीं निकलने वाला था। लेकिन आगे कदम बढ़ाने की हिम्मत नहीं हुई सो कुर्सी पर ही बैठा रहा गया। आनन् फानन में पहले कंचन जी को गोरखपुर फोन लगाया। यह सुनते की उनकी बॉडी वहां है। पोस्टमार्टम हो रहा है। मुझे सांप सूंघ गया। रात में ही राकेश से कोमल की चर्चा हो रही थी। लेकिन यह किसे पता था की हर काम धीरे-धीरे समझ बुझ के साथ करने वाले कोमल जी जिंदिगी की रफ्तार में इतने आगे निकल जायेंगे। लेकिन हुआ कुछ ऐसा ही। वो बनार्शी अदा वाले कोमल भइया हमारे बीच नहीं रहे। पटना से मुजफ्फरपुर तक की वो आठ साल की लम्बी याद कोई नहीं भुला पायेगा। मैं जब टेंसन में आता था तो वह कहते थे...अरे छोड़ो ये सब तो लगा रहता है. हर सुख-दुःख वो बतियाते थे. यह उनका व्यव्हार ही कहें की पत्रकारिता से जुड़े लोग तो छोडिये उनका मुजफ्फरपुर के उन आम लोगों , जिस बीट पर वह कम करते थे, से भी उतना ही लगाव था। वह हमेशा अपने परिवार की चिंता करते रहते थे। अपने छोटे भाई की नौकरी के लिए वह हमेशा चिंतित रहते थे। वह बताते थे की छोटी उम्र से ही उन्होंने संघर्ष किया है। पिछले हफ्ते ही उनसे फोन पर बात हो रही थी। उन्होंने कहा था..तोहर ब्लॉग के प्रयाश ठीक हा, अभी एक्राके पुरा नहीं पढ़ले वाणी। फुर्सत मिली तब परहम और कमेन्ट भी करम.....लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। इस दुखद समाचार को सुनते ही राकेश प्रियदर्शी और गणेश मेहता ने फोन किया. दोनों फ़ौरन गोरखपुर के लिए निकल गए. पटना से विवेक श्रीवास्तव भइया से बात हो रही थी। उन्होंने तुंरत कोमल जी के परिवार के लिए कुछ कदम उठाने की सलाह दी जिसे सभी लोगों ने मान लिया। अब तो हमारे बीच कोमल जी नहीं रहे, लेकिन भरा पुरा उनका परिवार आज भी है जिसकी चिंता हमेशा वो किया करते थे। ऐसे में हम सभी साथियों की तरफ़ से उनके परिवार के लिए उठाया गया कदम ही उन्हें सच्ची स्राधान्जली होगी।

बेहद दर्दनाक, कोमल जी अब हमारे बिच नहीं रहे

बेहद दर्दनाक और बुरी ख़बर।
अपने साथी कोमल जी अब हमारे बिच नहीं रहे। आजमगढ़ के करीब एक रोड एक्सीडेंट में उनकी जीवन इहलीला समाप्त हो गई। गुरुवार की देर रात वह अपने कुछ साथियों के साथ वाराणसी से लौट रहे थे की रास्ते में एक ट्रक से उनकी गाड़ी की टक्कर हो गई। इस दुर्घटना में उनके साथ ही दो अन्य की स्पॉट डेथ हो गई। इसमे अमरउजाला गोरखपुर के फोटोग्राफर वेदप्रकाश भी शामिल हैं। चार अन्य लोग अभी अस्पताल में भरती हैं। कोमल जी फिलहाल अमरउजाला गोरखपुर में कार्यरत थे। इसके पहले वह हिंदुस्तान मुजफ्फरपुर और हिंदुस्तान पटना में रह चुके है। वह करीब तैंतीस साल के थे. उनके परिवार में उनकी पत्नी, दो छोटे बच्चे और एक छोटा भाई है। वाराणसी के कई अख़बारों में भी वह काम कर चुके थे। कोमल जी के साथ ही इस दुर्घटना में मारे गए सभी लोगों की आत्मा की शान्ति के लिए श्रधान्जली देते हैं। साथ ही कामना करते हैं की उनके परिवार पर जो दुखों का पहाड़ टुटा है उसे बर्दास्त करने की हिम्मत आए। हम सभी साथी जैसे कोमल जी के साथ थे आज इस दुःख की घड़ी में उनके परिवार के साथ हैं। हादसे की जानकारी होते ही अपने कुछ साथी मुजफ्फरपुर से गोरखपुर के लिए रवाना हो गए हैं।

Tuesday, July 8, 2008

नई पारी के लिए बधाई.

प्रेम भइया पहले तो आपको जीवन की नई पारी शुरू करने के लिए बधाई। भाई व्यस्तता के कारणनहीं आ पाया। दिल्ली में रहने वाले कुछ और साथी नहीं जा पाए। लेकिन सभी ने आपको बधाई दी है। कृपया कर इसे स्वीकार करें। आप और मेरी नई भाभी दोनों को एक बार फ़िर अपने सभी भूले भटके साथियों के तरफ़ से बधाई। आपका जीवन मंगलमय हो यही कामना है.

धन्यवाद.

Saturday, July 5, 2008

बाथरूम नहीं...अब मीटिंग जनाब

एक जमाना था जब साहब टाइप लोग बाथरूम में ही होते थे। फोन करने पर साहब सामने नहीं आते थे, लेकिन जवाब आता था, साहब बाथरूम में हैं। एक बार एक जिले के डीएम के आवास पर मैंने फोन किया। किसी खबर पर प्रतिक्रिया लेनी थी। फोन ड्यूटी पर तैनात स्टाफ ने कहा की साहब अभी बाथरूम में हैं। एक घंटे के बाद किया तो भी वही जवाब साहब अभी..... फ़िर एक घंटे बाद भी वैसा ही। कुल मिलकर साहब से बात करने का कोई मौका नहीं। लेकिन अब जमाना बदल रहा है तो फोन वाला पैटर्न भी बदलना होगा। अब तो मोबाइल आ गया है। इसके लिए इसके हिसाब का बहाना चाहिए। सो, भाई लोग इसका भी हल निकालने में देर नहीं किए। खासकर दिल्ली में रहने वाले साहब टाइप के लोग अब बाथरूम से सीधे मीटिंग में आ गए हैं। ये साहब टाइप लोग मीटिंग में कम ही बैठते हैं लेकिन मीटिंग जरुर इनकी जुबान पर हमेशा बैठी होती है। रिंग आते ही झट से काट देंगे। या हेल्लो कहते ही कहेंगे अभी मीटिंग में हूँ बाद में करना। इसी तरह के एक साहब इन दिनों एक चैनल में हैं। चैनल में उनकी औकात बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन अपने उपर वाले से सिखा होगा। वह भी मीटिंग में ही लगे रहते हैं। कुछ लोग तो उनके दफ्तर में ही पहुँच कर उन्हें रिंग करते हैं..जवाब आता है अभी मीटिंग में हूँ। जबकि वह कैम्पस में ही सिगरेट फूंक रहे होते है। लोग कहते हैं की एक दिन उनके पिता फोन कर रहे थे। बेचारे की आदत ख़राब हो गई है सो उन्हें भी मीटिंग कहकर फोन काट दिया। उस समय वह एक अपनी आधी उम्र की बाला से ठिठोली कर रहे थे। अब उन्हें कौन समझाये की कम से कम बाप से तो बात कर लिया करो.
धन्यवाद.

Friday, July 4, 2008

कुछ लिया है तो देना भी सीखो...

गुड मोर्निंग, मैं प्रभुराम आपका पड़ोसी। और ये मेरी बीबी नाथूराम . आज ही यहाँ आया हूँ। एक अमेरिकी कंपनी में हूँ। इसी सेक्टर में मेरा कारपोरेट ऑफिस है। हम दोनों वहीँ जॉब करते हैं। इसीलिए सोचा यहीं फ्लैट किराये पर ले लूँ। बहुत स्वागत है आपका। मैं ज्वाला प्रसाद हूँ। लेकिन आपने क्या कहा मेरी बीबी....। जी हम दोनों ने शादी कर ली है। एक दूजे को जान से ज्यादा चाहते हैं। कहकर दोनों ऑफिस निकल गए। लेकिन फौज से सेवानिवृत ज्वाला जी को भला ये बात कैसे हजम होती। भला दो लड़के आपस में कैसे शादी कर सकते हैं। ज्वाला जी ने भी अपने दरवाजे की कुण्डी लगाई और डायनिंग हॉल में निढाल बैठ सोचने लगे। पुराने ख़यालात की उनकी पत्नी भी तब तक पूजापाठ निपटा चुकी थी। आते ही कहा कौन था। किसने घंटी बजाई थी। ज्वाला बाबु ने उनकी ओर देखा और बोले-नए पड़ोसी हैं। प्रभुराम और नाथूराम। यहीं एक कंपनी में काम करते हैं। नाम सुनते ही उनकी पत्नी शारदा ने कहा क्या सोसाइटी वालों ने बैचलर को मकान दे दिया। ये कैसे किया। मेरे घर में जवान लड़कियां है। भला बगल वाले फ्लैट में बैचलर कैसे रह सकता है। यह सब चुपचाप सुन रहे ज्वाला जी कहते हैं अरे बैचलर तो है लेकिन .... अरे लेकिन क्या। अच्छा बाद में बताऊंगा। अरे अभी बताइए। परेशान ज्वाला जी गरम हो गए। कहा अरे भाई फ़िर से एक बार मुझे कन्फर्म हो लेने दो। इसके बाद ही कुछ बताऊंगा। उनकी पत्नी और झुंझला गई। पहले बात तो बताइए कन्फर्म बाद में कीजियेगा। ऐसी कौन सी बात है की आप इतना परेशान हो गए। कोई चारा नहीं देख ज्वाला जी बोले अरे क्या कहें। बैचलर तो है लेकिन कह रहे थे की दोनों मियां-बीबी हैं। क्या दो लड़के भला मियां-बीबी कैसे हो सकते हैं। आपका दिमाग तो ठीक हैं न। अरे यही सुनकर तो मेरा दिमाग घूम गया है। भला दो लड़के मियां-बीबी कैसे हो सकते हैं। हे भगवान् । इतने में उनकी बड़ी बिटिया रीमा आ गई। क्यों भगवान्-भगवान् हो रही है। ऐसा क्या हो गया। अरे पापा सुना नए पड़ोसी आए हैं। क्या करते हैं। अंकल, आंटी ही हैं की बच्चे भी। अरे तुम्हे क्या लेना देना कोई भी हो। अरे भाई मुझे लगा की बड़े बच्चे होंगे तो मेरे फ्रेंड बनेंगे। छोटे बच्चे होंगे तो और मजे से टाइम पास होगा। इतने में उसकी मम्मी बोली। अरे कोई नहीं है दो लड़के कहाँ से आ गए हैं। ये सोसाइटी वालों ने ठीक नहीं किया। लेकिन तुम्हें इससे क्या है। कोई हो। अगले दिन यह समस्या लेकर ज्वाला जी अपने एक सेवानिवृत बॉस के यहाँ पहुंचे।देखते ही बॉस ने बैठने को तो कहा लेकिन कुछ सोच में तल्लीन दिखे। चेहरे पर चिंता साफ दिख रही थी। खैर उन्होंने रुमाल से पसीना साफ करते हुए कहा और ज्वाला बताओ कैसे आना हुआ। ज्वाला जी ने पहले उनकी चिंता के बारे में पूछा। उन्होंने कहा अरे क्या कहूँ एक पड़ोसी से परेशान हूँ,। मेरे बगल वाले फ्लैट में दो लड़कियां आई हैं। सुबह दोनों ने मुझे नमस्ते अंकल कहा। तबतक तो ठीक था लेकिन इसके बाद जो कहा वो आज तक मेरे दिमाग में नाच रहा है। जानते हो ज्वाला वो दोनों कोई पच्चीस साल की होंगी। टेंशन यह है की मैंने पूछा की तुम दोनों अकेली रहोगी की घर से कोई और आएँगे। इतने में उन दोनों ने कहा अब कौन आयेंगे अंकल। हम दोनों मियां-बीबी हैं। हमने शादी कर ली है। तुम ही बताओ ज्वाला भला ऐसा कभी हो सकता है की दो लड़कियां एक-दुसरे की पति पत्नी हो।बॉस मैं क्या कहूँ मैं भी तो वही आपसे पूछने आया था की क्या दो लड़के आपस में पति-पत्नी हो सकते हैं। क्या मतलब। बॉस जैसे आपके पड़ोस में दो लड़कियां आपके लिए टेंशन बनी हैं उसी तरह मेरे पड़ोस में दो लड़के टेंशन बन गए हैं। फिर क्या दोनों बुढ्ढे अपनी पुरानी संस्कृति के पन्ने खोलने लगे। पति-पत्नी, वो अग्नि साक्षी और शादी। अब तो नया जमाना है। शादी के लिए भला लड़के की क्या जरुरत। लड़का-लड़का से और लड़की-लड़की से ही शादी कर रहे हैं। लेकिन ज्वाला क्या यही समाज है। इसी के लिए हमने संघर्ष किया। भला इन बच्चों का वंश कैसे चलेगा। क्या इनके माता-पिता सहमत होंगे। उनके दिल पर क्या बीतेगी। एक हमारा समाज है की लड़की से दोस्ती पर भी नज़र नहीं उठती थी घरवालों के सामने। और ये भला इतनी बड़ी बात... इन्हे कौन समझायेगा की यही जिंदगी नहीं है। खाने-पिने-भोगने से आगे भी कुछ है..समाज को भी कुछ देना होगा जिसने तुम्हे बहुत कुछ दिया है। उस पिता के अरमान और माता की चाहत का क्या होगा जो तुम्हे चम्मच में दूध पिलाने से लेकर चंदा मामा दिखाने तक कुछ सपने देखती थीं। कुछ लिया है तो देना भी सीखो...

धन्यवाद.

Wednesday, July 2, 2008

जल्द चंगा हों आप

सभी साथियों को मेरा नमस्कार,

सबसे पहले मैं अपनी टीम की तरफ़ से विनय भाई को थोडी आजादी के लिए बधाई देना चाहूँगा। दिल्ली आकर उन्होंने सहारा ज्वाइन किया पिछले महीने रिक्क्शेवाले की गलती से उनका लेफ्ट हाथ टूट गया। आप सोच रहे होंगे की उनका हाथ टूट गया और ये बधाई कैसी। बधाई इसलिए की हाथ पर लगे बंधन नुमा प्लास्टर को सफलतापूर्वक उन्होंने झेल लिया। अब प्लास्टर उतर गया है। सो हाथ को थोडी रहत मिली है। इसीलिए बधाई। पुरी बधाई इसलिए नहीं की अभी उनको थोड़ा और धैर्य दिखाना है। वह काफी संयमित व्यक्तित्वा वाले पहले से हैं। खैर हमलोग यही उम्मीद करेंगे की आगे कुछ दिन और धैर्य रखें ताकि हाथ फिर से हर कम के लिए चंगा हो जाए। ब्लॉग के साथी आपके जल्द दुरुस्त होने की कामना करते हैं।

धन्यवाद.

Monday, June 30, 2008

शायद वही पुराने दिन ठीक थे, जब....

कभी कभी यही सोंचता हूँ की वही पुराने दिन ठीक थे। सभी एक साथ मिलकर लिखते थे। हँसी ठिठोली भी चलती रहती थी। हर रोज आनंदवर्धन,राजीव, अंशु, रूबी अरुण, विनय और राकेश से मिलते जुलते रहते थे। संजय त्रिपाठी भी बीच-बीच में हंसाते रहते थे। मैं जितने नामों की चर्चा कर रहा हूँ वो सभी आज इसी दिल्ली में हैं जहाँ मैं हूँ। लेकिन इसे फास्ट लाइफ में कम होता समय कहें या कुछ और, कभी कभार ही किसी से मुलाकात हो पाती है.आनंदवर्धन भाई बहुत व्यस्त हो गए हैं। उनका दफ्तर मेरे घर से बमुश्किल दो किलोमीटर है। लेकिन...उन्हें तो अबतक ब्लॉग पर अपना बहुमूल्य कमेन्ट देने की भी फुर्सत नहीं मिली। खैर आशा करता हूँ की अपने बड़े भाई जल्द ही निकलकर सामने आएँगे। पटना में वह हमेशा साथ देते थे। पुरी टीम रोज जुटती थी. लेकिन अब हमलोगों के पास तो मिलने जुलने का भी समय कहाँ रह गया है.। इसीलिए लगता है की पटना के वह दिन ही ठीक थे जब अपने बीच मोटा भाई मेरा मतलब राकेश प्रियदर्शी भी होते थे और सभी एक दुसरे के सुख-दुःख और ख़बरों को शेयर करते थे. अभी राकेश मुजफ्फरपुर में दैनिक जागरण के सीनियर रिपोर्टर हैं। बहरहाल उम्मीद करते हैं की यह ब्लॉग फ़िर से अपने साथियों को एक साथ रोज बैठने का तो नहीं लेकिनअपने को जोड़ने का बेहतर मौका जरुर देगा।
धन्यवाद ।

Sunday, June 29, 2008

सचमुच वो एक जुनून था, जो आज भी जारी है

सचमुच वो एक जुनून था। कुछ करने का। एक-दुसरे से आगे निकलने का। बेहतर लिखने का और बेहतरीन खबरें निकालने का। पुरी टीम इसी में लगी होती थी। कोई pmch भाग रहा होता था तो किसी की रेलवे स्टेशन पर नजर होती थी। कई साथी pir और थानों का चक्कर लगते रह्ते थे। कई थाने वाले तो यहाँ तक कहते थे की आपके यहाँ से कई लोग आते हैं। दिनभर भागने-दौड़ने का तो शाम मैं जल्दी ख़बर फाइल करने की चिंता होती थी। अपराध वाले अपनी टीम के साथ तो अन्य साथी अपने गुटों में रहकर न्यूज़ लिखते थे। इसी बीच संपादक जी आ जाते थे और शुरू हो जाती थी पाठशाला। सियाराम जी भी होते थे. राजिव्किशोर, अमलेंदु अस्थाना, राकेश प्रियदर्शी,आनंदवर्धन,रूबी अरुण , नीतिश सोनी, विनय, राकेश वकील साहब और प्रेम से लेकर शंकर प्रसाद, गोविन्द जी तक होते थे। बालन सर के सौजन्य से कई दफा शंकर प्रसाद जी की सांस्कृतिक प्रतिभा से भी हम सभी वाकिफ होते थे. पटना सिटी वाले प्रभात भइया होते थे तो हाथ में हमेशा बैग लटकाए अवधेश बाबा दीखते थे। आजकल वो शायद बिहार्सरिफ मैं हैं। अरे श्शिभुसन भाई की वो आवाज आज भी कानों में गूंजती है। पता नहीं कब उनसे फोन पर भी बात होगी। अमलेंदु भाई का चश्मा और प्रेम की दाढ़ी हमेशा आँखों के सामने रहता है। अंशु सिंह और दीपिका झा की जोड़ी भी अनूठी थी। उधर सुशिल सिंह फीचर सेक्शन में सियाराम जी के साथ लगे रहते थे.अब मैं जिस आदमी की चर्चा करने जा रहा हूँ वो तो सचमुच अद्भुत हैं। वो हैं संजय त्रिपाठी बाबा। अभी बाबा भी दिल्ली में ही सुलभ में कम कर रहे हैं. अंत में मैं ब्लॉग के साथियों की ओरसे देशदीपक भइया और दीपिका जी के मंगलमय जीवन की कामना करता हूँ।

प्रेम भाई सामने आए हैं, आप सबों को बुलाया है

चलिए प्रेम भाई अब ब्लॉग पर सामने आए हैं। उन्होंने अन्य साथियों की तरह ब्लॉग क्रिअशन के लिए धन्यवाद दिया है। साथ ही आप सबों को उन्होंने शादी में बुलाया भी है। चलिए सबसे पहले तो अपने सभी साथियों की तरफ़ से उन्हें दुबारा बधाई दे देते हैं. मैं भी जाने का प्लान बना रहा हूँ। दिल्ली और आसपास के साथी भी जाने की सोच रहे हैं। पटना वाले तो मौजूद ही हैं.

Monday, June 23, 2008

बधाई हो भाई;

अपने फ्रेंच कट दाढ़ी वाले प्रेम भाई को बधाई भइया अब ८ जुलाई के दिन दूल्हा बन रहे हैं। मेरी उनसे बात हुई है। फिलहाल भाई प्रभात ख़बर पटना के बेहतरीन क्राइम रिपोर्टर हैं। उनका नम्बर है.-09431094594 आप तमाम भाइयों को उन्होंने आमंत्रित किया है। जुलाई को नहीं पहुँच पाने वाले १० जुलाई को रिसेप्शन मैं जाइए।

Saturday, June 21, 2008

जिंदगी का अहम् दिन

साथियों,
G4Feb । यानि 4 फरवरी 2000। वैसे तो हर एक दिन कैलेंडर का हिस्सा है लेकिन 4 फरवरी 2000 हम उन सभी साथियों के जीवन का ऐसा अंग बन गया है जिसे मिटाना या भुलाना शायद किसी के लिए संभव नहीं। शायद यह याद करने की भी जरुरत नहीं की इसी दिन हम सभी मिले थे। पटना स्थित 'हिंदुस्तान' के उस 'पाठशाला' में जहाँ गुरु रूप में आदरणीय गिरीश मिश्रा जी हमें सिखाते थे। आज भले अपने ज्यादातर साथी देश के विभिन्न मीडिया समूह में हैं। कोई देश के प्रमुख समाचार चैनेल में है तो कोई बड़े अख़बार में। लेकिन खुशी इसी बात की है की आज भी सभी एक परिवार की तरह जुड़े हैं। पत्रकारिता के इसी आठ साल के सफर मैं मैंने इस जुडाव को और मजबूत बनने के लिए इस ब्लॉग को बनाया है। ब्लॉग का क्रिएशन तभी सफल होगा जब सभी साथी इससे जुडेंगे। सिर्फ़ जुडेंगे ही नहीं बल्कि एक दुसरे की खुशी और गम को मिलकर बाँटेंगे। आइये इसी कड़ी को आगे बढाएं । धन्यवाद ।
pragati Mehta ........