Thursday, November 15, 2012

दिवाली और छठ की हार्दिक शुभकामनायें .

आप सभी साथियों को दिवाली और छठ की हार्दिक शुभकामनायें .

 प्रगति मेहता
हिंदुस्तान , मुजफ्फरपुर 

Friday, February 4, 2011

और पुराने स्टेशन पर पहुँच गई ट्रेन


सचमुच, वो पुराने दिन याद आ गए। लग ही नहीं रहा था की आज हम एक दशक के बाद इस तरह जुटे थे। बुद्धमार्ग के घर आँगन रेस्तरां में सभी को दिन में 12 बजे पहुंचना था। ठीक 12 बजे मैं होटल में तैयारियां का फ़ाइनल इंतजाम देखने जैसे पहुंचा की सामने लीना जी दिखीं। उनके आते ही चेहरे पर मुस्कान लिए पंकजेश पंकज आये। मैं थोडा मोटा जरुर हो गया लेकिन पंकजेश भैया आज भी वैसे के वैसे दिखे। इतने में वही हा.. हा.. हा.. वाली पुरानी हंसी लिए शशिभूषण दाखिल हुए। फिर क्या एक एक कर सभी साथी रेल के डब्बे की तरह जुटते गए और हमारी ट्रेन वो पुराने स्टेशन पर पहुँच गई। हम सभी दशक की इस दूरी को एक पल में ख़तम कर दिए। हम आज अलग-अलग बैनर में काम करते हैं। अलग-अलग ओहदे पर हैं. लेकिन आज उस समय हम सिर्फ और सिर्फ संवाद सूत्र ही थे। खूब बातें हुई। कुलभूषण की वो घास वाली खबर हो या अनिल उपाध्याय की नेपाल बोर्डर से जुड़ने वाली खबर देशदीपक भैया ने सभी की चर्चा की। तरह तरह की चर्चा चलती रही। कैसे 4 फरवरी को हम मिले थे। उस दिन कुछ ने तो शंकर प्रसाद को ही संपादक समझ लिया था। वगैरह, वगैरह।

महिलावों की भी टीम थी। लीना, संगीता पाण्डेय , दीपिका और सीमा सुजानी थीं। कुछ के नहीं रहने की कमी भी खल रही थी। तीन घंटे तक सभी वही पुरानी यादों में डूबे रहे। भोजन पानी हुआ तो फोटोग्राफी भी हुई। कोमल के अपने बीच नहीं रहने का अफ़सोस सभी ने किया। वहीँ आदरणीय गिरीश मिश्र जी को सभी ने न सिर्फ याद किया बल्कि तहे दिल से उनका शुक्रिया भी व्यक्त किया। सियाराम यादव और अवधेश प्रीत को भी लोगों ने याद किया। विनय, रंजन, अतुल, विजय, राकेश रंजन, राजेश, अतुलेश, नीरज और ओमप्रकाश सभी एक दूसरे की याद ताजा करते रहे। पटना में होकर भी तो कुछ न होने की वजह से इस पार्टी का हिस्सा नहीं बन पाए। हालाँकि सभी साथियों ने यह तय किया की अगले साल हम सभी 26 जनवरी को ही मिलेंगे। तब गिरीश मिश्र जी, सियाराम सर और अवधेश प्रीत को आमंत्रित करेंगे। बिहार से बाहर अपना जलवा बिखेर रहे साथियों को भी बुलाएँगे।

बहरहाल, आज की मीटिंग वाकई में मजेदार रही। अपने साथियों के लिए उन यादगार पलों को तस्वीर के माध्यम दिखाने की कोशिश की जाएगी।

धन्यवाद

प्रगति।

Tuesday, February 1, 2011

आइये साथियों, 11 वें साल को सेलिब्रेट करें

हमसबों के जीवन में ४ फरवरी का खास महत्व है । ४ फरवरी २००० को ही हम सबों ने पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा था। २०११ का ४ फरवरी हमारे सामने है। पटना में हम कई साथी हैं। कई देश के विभिन्न हिस्सों में हैं। इस पेशे में पार्टी करने के लिए सभी को एक साथ छुटी भी नहीं मिल सकती है। सभी एक साथ शायद ही कभी जुट पायें। खैर हम सभी रोज न मिलते हुए भी एक-दूसरे से बंधे हैं। हम सबों का प्यार कम नहीं होने वाला है।
इस बार पटना आस पास के अपने सभी साथी ४ फ़रवरी को एकत्र होने की प्लानिंग कर रहे हैं। कुछ घंटे के लिए हम सभी जुटेंगे। यादों को ताजा करेंगे। जो साथी नहीं आ पाएंगे उन्हें भी हम यादों और चर्चा के माध्यम से शामिल करने की कोशिश करेंगे। गुरु जी को भी याद करेंगे।
पटना और आस पास या किसी दूर प्रदेश में रहनेवाले अपने साथी भी इसे आमंत्रण समझ आने की कोशिश करें तो और मजा आ जायेगा।
धन्यवाद।
प्रगति मेहता

Wednesday, April 14, 2010

सानिया-शोएब और सुनंदा से आगे भी एक दुनिया है..

देशवासी बदलते मौसम की तपिश और महंगाई की आग में झुलस रहे हैं। कई राज्य नक्सली आग में जल रहे हैं। मुंबई पर हमला करने वाला अमेरिका में बैठा है। कुछ लोग ऐसे हैं जो सौख से कम खाते हैं ताकि उनका शरीरआकर्षक बना रहे। वहीँ करोड़ों की तादाद ऐसी है जिसके पास अपने शरीर को बचाने के लिए खाना नहीं मिलता है।

लेकिन इन सबों से किसी का क्या लेना। आप के लिए भले ये जीने मरने का मामला होगा लेकिन नेताओं के लिए ये सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप के हथियार हैं। हमारे देश में ये ज्वलंत मुद्दे नहीं हैं। मुद्दे हैं-

-सानिया-शोएब की शादी

-थरूर-सुनंदा प्रकरण

-अमिताभ और गाँधी परिवार के रिश्ते

-मुलायम और अमर सिंह के सम्बन्ध

-शरद पवार के एक से एक बयां

-सुरक्षाकर्मियों की मौत नहीं बल्कि चिदम्वरम का इस्तीफा

क्या हो गया है हमारे देश के अगली कतार में बैठे लोगों को।

भारतीय मौसम विभाग के अनुसार 1901 के बाद 2009 सबसे गर्म रहा था। 2010 की हालत भी कुछ वैसी ही है। मार्च में ही बिहार सहित देश का बड़ा हिस्सा तपिश में जलने लगा था। लू चलने से लोग परेशां हो गए। कई मैदानी हिस्सों में 1953 के बाद ऐसी गर्मी पड़ रही है। मई में क्या हालत होगी यह सोचकर लोग घबरा रहे हैं। इस तरह मौसम का बदलाव ग्लोबल वार्मिंग के असर को दर्शाता है।

सरकार को देशवासियों की चिंता होनी चाहिए। कोई भूखा न रहे इसका इंतजाम करना चाहिए। कोई सुरक्षाकर्मी नक्सली हिंसा में न मारा जाये यह गारंटी देनी चाहिए। विपक्ष को भी अपनी जवाबदेही तय करनी चाहिए। सिर्फ सदन में शोर-शराबा कर देने से किसी का भला नहीं होगा। जनता ने मौका दिया है तो कुछ उसके लिए भी कीजिये। मौसम, महंगाई। आतंक और भुखमरी पर भी सोचिये। सानिया-शोएब और सुनंदा से आगे भी एक दुनिया है।

Sunday, January 3, 2010

रेलयात्रियों को बचाइए

पिछले हफ्ते मैं मथुरा से लौट रहा था। रास्ते में एक गार्ड साहब मिल गए। उनसे कुछ देर रेल पर बात करने का मौका मिला। इन दिनों वह आगरा-दिल्ली रूट की मेल एक्सप्रेस ट्रेन में चलते हैं। मैंने उनसे पूछा-ममता जी के टाइम में रेल का सिस्टम कैसा चल रहा है। छूटते ही उन्होंने कहा-चौपट है। उन्होंने कहा की रेल २४ घंटे चलने वाला सिस्टम है। इसपर पूरा ध्यान देने की जरुरत है, लेकिन ममता जी का ध्यान तो बंगाल पर रहता है। ऐसे में भला रेल का क्या होगा। नए साल की खुशियों के बीच ही एक ही दिन में तीन-तीन रेल हादसों की खबर सुनते ही आगरा वाले रेलवे गार्ड की बात याद आ गई।
रेल मंत्री ममता बनर्जी का ज्यादा से ज्यादा समय बंगाल में बीतता है। ध्यान भी बंगाल के चुनाव पर है। कभी-कभार वो दिल्ली आती भी हैं तो उसमे वह पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद की खामियां निकलवाने में रह जाती हैं। ऐसे में भला भारतीय रेल का क्या होगा ? यही होगा जो हम देख रहे हैं। जो झेल रहे हैं। मौत पर मुआवजा बाँटने का खेल चलता रहेगा। इतने हादसे हो गए हैं की अब लोग कहने लगे हैं की ममता को लोहा नहीं धार (फल) रहा है। लालू के ज़माने में इतने रेल हादसे नहीं होते थे। लालू प्रसाद ने रेल में क्या 'करिश्मा' किया यह तो ममता जी बता चुकी हैं। लेकिन लालू के कार्यकाल का एक सच यह भी है की उनके समय में हादसे कम हुए थे। यह आंकड़ा ममता जी की ओर से प्रस्तुत श्वेत पत्र भी दर्शाता है। श्वेत पत्र के अनुसार पिछले पांच साल में रेल दुर्घटनाओं की संख्या...
2004-05----234
2005-06----234
2006-07----195
2007-08----194
2008-09----177

लालू प्रसाद ने भारतीय रेल को दुर्घटना रहित नहीं कर दिया था, लेकिन उनके समय में दुर्घटनाएं कम हुई थीं। लेकिन ममता जी जब से आईं हैं तब से कई दुर्घटनाएं हो गईं। रेलवे का इतना बड़ा नेटवर्क है की उसमे एक-दो दिन में कहीं न कहीं कोई दुर्घटना होती ही है। लेकिन वह यार्ड में शंटिंग के समय होती है या किसी मालगाड़ी का पहिया यार्ड में उतर जाता है। ये दुर्घटनाएं खबर इसलिए नहीं बनती है की यह बहुत ही मामूली होती है। इसमें कोई जख्मी नहीं होता है या इससे रेल ट्राफिक बाधित नहीं होता। लेकिन इन हादसों को भी कम करना रेलवे की जिम्मेवारी है. लेकिन अब तो ऐसे हादसों के बाद भी कुछ होता नहीं दिख रहा है जिसमे यात्रियों की जानें जा रही हैं. सिर्फ मुआवजा ही बांटा जा रहा है.
यह समय है रेल मंत्री को गंभीरता से सोचने का। प्रधानमंत्री को भी इसपर विचार करना चाहिए की आपका रेल का नेटवर्क कैसा चल रहा है...कहीं ऐसे हालात ना हो जाये की लोगों को ट्रेन में चढ़ने में भी डर लगने लगे।

Saturday, April 4, 2009

' भय हो ' ऑस्कर के लिए जाता तो क्या होता?

पहले चला जय हो। खूब बजा। खूब सुना गया। अब मैं ' भय हो ' गाने को खूब सुन रहा हूँ। इस गाने में गजब का खिंचाव है. मैं इसके राजनितिक चेहरे की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं सोंच रहा हूँ यदि ऑस्कर जितने वाली रहमान साहब के जय हो की जगह यदि ' भय हो ' को इसी सुर-ताल के साथ भेजा जाता तो क्या होता ? यह बात कई दिनों से मैं सोच रहा था। मैं दुबारा कह रहा हूँ की दोनों गाने के राजनीतिक पार्ट पर मत जाइये। उसके फिल्मांकन और उसके संगीत को देखिये। टीवी पर यह गाना चलते ही गाँव-घर की याद आने लगती है। हर्मोनिअम, झाल और तमाम वो पुराने वाद्य यन्त्र याद आ जाते हैं. ये वाद्य यन्त्र खासकर अब शहरों में तो नहीं ही दिखते हैं। गाँव में भी इंग्लिश बैंड आ गया है। भय हो गाने की सुर-ताल, गाने वाले बच्चों की ऑंखें..सचमुच गजब है। मुझे यह नहीं पता की इसे किसने लिखा है। या इतना प्यारा म्यूजिक किसने दिया है। यह भी नहीं पता की कांग्रेस के जय हो या बीजेपी के भय हो का वोटर पर कितना जादू चल पायेगा। लेकिन इतना तो मुझे लगता ही है की म्यूजिक और राग के हिसाब से भय हो थोड़ा आगे निकल गया...जय हो भारत की।

Thursday, April 2, 2009

काश, जॉर्ज भी अटल जी जैसा सम्मान पाते

कितना अच्छा होता की जॉर्ज जैसे समाजवादी नेता को भी अटल बिहारी वाजपेयी जैसा सम्मान मिलता। अटल जी की तरह जॉर्ज भी चुपचाप बैठ जाते। उम्र और सेहत का ख्याल रखते। चुनावी तिकड़मों से अपने को दूर कर लेते। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। जॉर्ज फ़र्नान्डिस फ़िर मैदान में हैं। सेहत भले जवाब दे रहा हो, लेकिन वह आज भी लड़ने के मूड में हैं। मुजफ्फरपुर से पर्चा दाखिल कर उन्होंने उसी पार्टी को ललकार दिया है जिसे उन्होंने ही बनाया था। मीडिया में खबरें आ रही है की जॉर्ज जैसे नेता को टिकट नहीं दिया गया। कुछ इसे नीतिश कुमार का तानाशाही बता रहे हैं। क्या यह नीतिश की तानाशाही ही है ? लेकिन मुझे तो ऐसा नहीं लगता है।
जॉर्ज जैसे नेता को तो अब टिकट मिले भी तो इंकार करके सम्मान पाना चाहिए था। एक सांसद के रूप में भी अब जनता को भाग-दौड़ करने वाला प्रतिनिधि चाहिए। हमारे समाज और घर में भी बड़े-बुजुर्ग को सम्मान से बिठा कर रखा जाता है। घर के जवान लोग ही कमाते हैं और परिवार चलाते हैं। नौकरी से भी एक उम्र के बाद लोग सेवानिवृत होते हैं। जेडीयू भी जार्ज के साथ तो ऐसा ही करना चाहती थी। वह हमेशा की तरह अब भी सम्मानित नेता रहते। लेकिन चुनाव लड़ने की घोषणा कर उन्होंने मुजफ्फरपुर के लोगों को भी सांसत में डाल दिया है।
वहां के लोग भी सोच में पड़ गए हैं। जॉर्ज का शहर से पुराना जुडाव और इधर नीतिश कुमार के विकाश के वादे के साथ उतरा उनका प्रत्याशी।