Monday, February 9, 2009

उस दिन सूरजकुंड पटना जैसा लगने लगा था.



सचमुच, उस दिन हरियाणा का सूरजकुंड अपना पटना जैसा लगने लगा था। 4 फरवरी 2000 का वो ऐतिहासिक पल इस 4 फरवरी को भी याद आ गया। अपने ग्रुप के कुछ साथी जुटे थे। पुरानी यादें तजा हो गईं। सबकुछ 2000 जैसा लग रहा था। अन्तर सिर्फ़ इतना भर था की उस 4 फरवरी को हम एक बंद दरवाजे के सामने खड़े हो उसके खुलने का इंतज़ार कर रहे थे। मीडिया के क्षेत्र में अपने कैरिअर और भविष्य को लेकर तमाम बातें चल रही थी. लेकिन इस 4 फरवरी को हम सभी उस रास्ते के अब तक के सफर पर चर्चा कर रहे थे। हमने क्या खोया और क्या पाया। हमें अभी कितना पाना है। श्रीमान गिरीश मिश्र हमारी हर चर्चा में थे। श्री सियाराम जी की भी खूब याद आई। दोस्तों ने उनसे फोन पर बात भी किया। उन सभी साथियों की भी हर आदत और ख़बर की चर्चा हुई जो सूरजकुंड में हमारे साथ नहीं थे। हम सभी को छोड़ बहुत दूर चले गए अपने साथी कोमल की भी खूब याद आई। भगवान् उनके परिवार का हमेशा साथ दे।
g4feb के 9 साल होने की खुशी में अचानक कुछ साथी जुटे। कार्यक्रम अचानक तय हुआ इसलिए सिर्फ़ दिल्ली आसपास के ही साथियों को बुलाया गया था। सूरजकुंड का ऐतिहासिक मेला ही बेहतर जगह लगा। जल्दी में जुटने का कार्यक्रम होने के कारण ही पटना या दुसरे जगह के साथी को सूचना नहीं दी गई। इसके लिए हम क्षमा चाहते हैं. लेकिन इतना भरोसा दिलाता हूँ की जल्द ही हम सभी लोग जरुर कहीं जुटेंगे। g4feb के सभी साथियों को 9 साल के इस सफर पर ढेरों बधाइयाँ।
प्रगति मेहता

4 comments:

nikaspuriya.com said...

ek photograph bhi dalo yar

Vinay said...

बहुत अच्छा लिखा है

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चाँद, बादल और शाम

Unknown said...

my dear pragati,
patliputra se surajkund...feb4,2000 se feb4,2009...ek-do saal nahi pure 9 saal. aaj ke bhagambhag jindgi me 9 saal purani baato ko yaad karna sambhav nahi hota, lekin aapke prayaas se ye sara kuch huaa.realy pragati, thnx to u yaar. tumhare bhitar leadership ki bhawna aa gai hai. election me kood jao.avi 9 ka bulletin ready kar raha hu...isliye avi itna hi
bye bye.
---anandvardhan

Unknown said...

पहले ये तय करें कि शुरुआत से शर्म तो नहीं आ रही। लोगों को इकट्ठा करने की भावना का कद्रदान हूं। लेकिन जो वजूद को ही सवालों के दायरे में ला रहे हों...जो शुरूआत को शर्म मान रहे हों...जो "मूस मोटइहें लोढ़ा होइएं" जैसे मुहावरे से गिरीश जी के योगदान को झुठला रहे हैं..जो गिरीश जी की उस दौर की नियुक्तियों को पत्रकारिता का कलंक मान रहे हैं...जो कहते हैं कि गिरीश जी की तुलना हेमंत जी से कर रहे हैं...ऐसे लोगों को इकट्ठा कर क्यों 4 फरवरी के शरीर को जीते-जी मार रहे हो?